अद्वैत वेदान्त

 


  अद्वैतवेदान्तनय में आत्मतत्त्व के प्रसङ्ग में आत्मा को साक्षी कहा गया है। साक्षी का सामान्य अर्थ है-"द्रष्टृत्वे सति उदासीनत्वम्" अर्थात् जो द्रष्टा होते हुए भी उदासीन हो। लोक में भी दो जनों के मध्य विवाद में साक्षी के रूप में उसको ही ग्रहीत किया जाता है, जो विवाद को जानता तो हो, पर उसमें संलिप्त न हो। उसी प्रकार अद्वैतनय में भी आत्मा को भी साक्षित्वेन स्वीकार किया गया है। कठोपनिषद् के वर्णित है-
सूर्यो यथा सर्वलोकस्य चक्षुर्न लिप्यते चाक्षुषैर्बाह्यदोषैः।
एकस्तथा सर्वभूतान्तरात्मा न लिप्यते लोकदुःखेन बाह्यः।।
                                                   {कठ.उप.-2/2/11}
  अर्थात् जैसे एक ही सूर्य सब लोगों की आँख है, अच्छी-बुरी सभी वस्तुओं का प्रकाश सूर्य से ही होता है, तथापि वह बाह्य दोषों से लिप्त नहीं होता है। उसी प्रकार वह आत्मा सर्वव्यापी होने पर भी जगत् के दुःखों से लिप्त नहीं होता।
  समस्त भूत प्राणियों के अन्तः में शक्तिरूप से रहने वाला वह आत्मा एक ही है। वही सबका नियन्ता है। वह एक होते हुए भी अनेक रूपों में दिखायी देता है। जो धीर पुरुष ऐसी आत्मा को जानते है-उन्हें ही शाश्वत सुख की प्राप्ति होती है, दूसरों को नहीं-तेषां सुखं शाश्वतं नेतरेषाम्।
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